सोने की चिड़िया क्यों लुटती रही? आज क्या तैयारी है?

5 जनवरी 2022

azaadbharat.org

महान इतिहासकार विल ड्यूराँ ने अपना पूरा जीवन लगाकर वृहत ग्यारह भारी-भरकम खंडों में “स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन” लिखी है। उसके प्रथम खंड में भारत संबंधी इतिहास के अंत में उन्होंने अत्यंत मार्मिक निष्कर्ष दिए हैं। वह हरेक भारत-प्रेमी के पढ़ने योग्य है। हजार वर्ष पहले भारत विश्व का सबसे धनी और समृद्ध देश था। मगर उसे बाहर से आने वाले लुटेरे हर साल आकर भरपूर लूटते थे। यहाँ तक कि उनके सालाना आक्रमण का समय तक नियत था! मगर यह समृद्ध सभ्यता उनसे लड़ने, निपटने की कोई व्यवस्था नहीं कर पाती थी और प्रति वर्ष असहाय लुटती और रौंदी जाती थी। ड्यूराँ दुःख और आश्चर्य से लिखते हैं कि महमूद गजनवी से लेकर उसका बेटा मसूद गजनवी तक जब चाहे आकर भारत को लुटता-खसोटता रहा और ज्ञान-गुण-धन संपन्न भारत कुछ नहीं कर पाता था। ड्यूराँ ने उस परिघटना पर दार्शनिक टिप्पणी की है कि सभ्यता बड़ी अनमोल चीज है। अहिंसा और शांति के मंत्र-जाप से वह नहीं बचती। उसकी रक्षा के लिए सुदृढ़ व्यवस्था करनी होती है, नहीं तो मामूली बर्बर भी उसे तहस-नहस कर डालता है। क्या यह सीख आज भी हमारे लिए दुःखद रूप से सामयिक नहीं है?

दुर्भाग्य से भारत के आत्म-मुग्ध उच्च वर्ग ने इतिहास से कभी कुछ नहीं सीखने की कसम खा रखी है। हजार वर्ष पहले की छोड़ दें, पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों का इतिहास भी यही दिखाता है कि भारतीय नेता अपनी ही मोहक बातों, परिकल्पनाओं पर फिदा होकर आश्वस्त बैठ जाते हैं कि हम किसी का बुरा नहीं चाहते, तो हमारा कोई बुरा क्यों चाहेगा! अगर कभी ऐसा कुछ हो जाता है, तो जरूर कोई गलतफहमी है जिसे ‘बात-चीत’ से सुलझा लिया जाएगा। यही उनका पूरा राजनीतिक-दर्शन है, जो निरीहता और भोलेपन का दयनीय प्रदर्शन भर रह जाता है। इसीलिए, देसी या विदेशी, हर दुष्ट और कटिबद्ध शत्रु भारत का मान-मर्दन करता रहा है।

पिछले सत्तर साल से मुस्लिम लीग, जिन्ना, माओ, पाकिस्तान, जिहादी, नक्सली, आतंकवादी– सभी ने भारतीय जनता पर बेतरह जुल्म ढाए हैं। नेताओं समेत संपूर्ण उच्च वर्ग के पास उसका उत्तर क्या रहा है? मात्र लफ्फाजी, कभी थोड़ी देर छाती पीटना, दुनिया से शिकायत करना और अपनी ओर से उसी रोजमर्रे के राजनीतिक-आर्थिक धंधे में लगे रहना। कहने के लिए हमारे पास संप्रभु राज्य-तंत्र, आधुनिक सेना, यहाँ तक कि अणु बम भी है, किन्तु वैसे ही जैसे मिट्टी के माधो के हाथ में तलवार! उससे कोई नहीं डरता, क्योंकि असलियत सबको मालूम है।
वही बरायनाम असलियत जिसे जानते हुए जिन्ना ने भरोसे से ‘डायरेक्ट एक्शन’ कर पाकिस्तान लिया था। जिसे जानते चीन जब चाहे हमें आँखें दिखाता है। जिसे समझकर हर तरह के संगठित अपराधी, आतंकवादी, अलगाववादी, नक्सली जहाँ चाहे हमला करते हैं, बंधक बनाते हैं, फिरौती वसूलते हैं। इन सबसे आँखें चुराते हुए भारत के अरबपति, राजनेता, विद्वान, संपादक– तमाम उच्च वर्ग केवल अपने रूटीन धंधे-पानी में लगा रहता है। चाहे हर दिन भारत के किसी न किसी कोने पर कोई शत्रु बाहर-भीतर से हमला करता रहे, उसे पीड़ा नहीं होती। सारे बड़े, संपन्न लोग आराम से शेयर बाजार, सिनेमा, क्रिकेट, फैशन, घोटाले, गोष्ठी-सेमिनार आदि विविध कामों में लगे रहते हैं। अगर किसी एक चीज की चिंता वे नहीं करते तो वह है- देश के सम्मान तथा प्रजा की रक्षा। देशवासी आज भी भगवान भरोसे हैं। महमूद गजनवी के समय के धनी भारतीयों की तरह वे अन्न, धन, रेशम, जवाहरात, ज्ञान, तकनीक, आदि तो पैदा कर सकते हैं– अपनी रक्षा नहीं कर सकते।

उन्होंने इतिहास के सबक ही नहीं, रामायण, महाभारत समेत संपूर्ण भारतीय मनीषा की अनमोल शिक्षाओं की भी पूरी उपेक्षा की है। आखिर ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ या ‘टेढ़ जानि शंका सब काहू, वक्र चंद्रमा ग्रसहि न राहू’ आदि जैसी अनेक सूक्तियों का अर्थ क्या है? यही कि देश की रक्षा किसी भलमनसाहत या वार्तालाप से नहीं होती। उसके लिए कटिबद्धता, सैन्य शक्ति और आवश्यकता होते ही उसका निर्मम प्रयोग अनिवार्य होता है। इससे किसी भी नाम पर बचने की कोशिश हो, तो निश्चय मानिए– आप हर तरह के आततायी को निमंत्रण दे रहे हैं।

भारत-विभाजन पहली बड़ी दुर्गति थी, जब लाखों सुखी, संपन्न, सुशिक्षित लोग सत्य, अहिंसा की कथित राजनीति के भरोसे एकाएक मारे गए। अन्य लाखों-लाख बेघर हो गए। मुट्ठीभर लोगों ने दो-चार बार संगठित हिंसा कर, डराकर भारतीय नेताओं को विभाजन के लिए तैयार कर लिया। जब विभाजन हो गया, तो भीषण पैमाने पर पूर्वी बंगाल और पश्चिमी पंजाब में कत्लेआम हुआ। दूसरी दुर्गति कश्मीर में हुई, जब संवैधानिक रूप से भारत का हिस्सा हो जाने के बाद भी उसका अकारण, अयाचित ‘अंतर्राष्ट्रीय समाधान’ कराने का भोलापन दिखाया गया। फिर, वैसे ही भोलेपन में तिब्बत जैसा मूल्यवान मध्यवर्ती (बफर) देश कम्युनिस्ट चीन को उपहार स्वरूप सौंपकर तीसरी दुर्गति की गई। मान लिया गया कि तिब्बत पाकर चीन भारत का परम मित्र हो जाएगा। जब उसी तिब्बत पर कब्जे के सहारे माओ ने भारत पर पहले छिपकर, फिर खुला हमला किया तो ‘पंचशील’ पर मोहित हमारे नेता हतप्रभ रह गए।

माओ ने भारत को ‘मंदबुद्धि गाय’ और भारतीयों को ‘खोखले शब्दों का भंडार’ कहा था। गुलाम नबी फई के हाथों खेलने वाले हमारे बुद्धिजीवियों ने अभी क्या यही साबित नहीं किया? यह वस्तुतः हमारे राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग की अक्षमता के ही अलग-अलग नाम हैं। नीति-निर्माण और शासन में भीरुता इसीका प्रतिबिम्ब है। जिहादियों, माओवादियों या बाहरी मिशनरियों की भारत-विरोधी गतिविधियों पर जनता क्रुद्ध होती है किंतु शासकीय पदों पर बैठा उच्च वर्ग भोग-विलास में मगन रहता है। वह आतंकवादियों, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों को जानते, पहचानते भी उन्हें सजा देने का साहस नहीं रखता।

लंबे समय से यह हमारी स्थाई विडंबना है। आसुरी शक्तियों के दुष्टता और अधर्म को आँख मिलाकर न देखना, उसके प्रतिकार का दृढ़ उपाय न करना, कठिन प्रश्नों पर निर्भय होकर विचार-विमर्श तक न करना– हिन्दू उच्च वर्ग की इस मूल दुर्बलता ने उन्हें संकटों का सामना करने योग्य नहीं बनने दिया है। हमारे शासक और नीति-निर्माता हमलावरों, हिंसकों की खुशामद करके ही सदैव काम निकालना चाहते हैं।

अब तो मान लेना चाहिए कि तथाकथित ‘अहिंसक’ राजनीति ने हमारे उच्च वर्ग की कायरता को एक बेजोड़ ढाल देने का ही काम किया, स्वतंत्रता से पहले और बाद भी। इसीलिए वे इसका खूब ढिंढोरा पीटते हैं। इसमें उन्हें अपनी चरित्र की दुर्बलता छिपाने का मुफीद उपाय दिखता है। इसी पर कवि गोपाल सिंह नेपाली ने नेताओं को फटकारते हुए लिखा था, “चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से।” कवि ने यह ‘ओ दिल्ली जाने वाले राही, कहना अपनी सरकार से’ के रूप में जरूरी संदेश जैसा कहा था। यह अनायास नहीं कि ऐसे कवि और उसके संदेश को भी सत्ताधारियों और लगभग संपूर्ण शिक्षित समाज ने भुला दिया है, चाहे यह उस कवि की जन्मशती ही क्यों न हो।
वे भी वस्तुतः किसी अहिंसा या प्रेम से अपना जीवन चलाने में विश्वास नहीं करते। यदि करते तो अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस, कमांडो, प्राइवेट गार्ड आदि के नियमित प्रावधान नहीं करते। इसीलिए कसाब से लेकर कलमाडी, सच्चर तक बार-बार होते रहेंगे। और किस देश में ऐसे लज्जास्पद उदाहरण हैं?

आज भारत का राजनीतिक परिदृश्य इसका दुःखद प्रमाण है। पूरा राज्यकर्म मानो नगरपालिका जैसे कार्य और शेष बंदर-बाँट, झूठी बातें कहने-करने के धंधे में बदल दिया गया है। भ्रष्टाचार से लेकर आतंकवाद, सभी गड़बड़ियों में वृद्धि का यही मुख्य कारण है। चौतरफा ढिलाई, उत्तरदायित्वहीनता और भगोड़ेपन में बढ़ोतरी हो रही है। इस घातक बीमारी को समय रहते पहचानें। याद रहेः उत्पादन और व्यापार में वृद्धि राष्ट्रीय सुरक्षा का पर्याय नहीं। अन्यथा सोने की चिड़िया क्यों लुटती?
लेखक : डॉ शंकर शरण

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