मदर टेरेसा का असली चेहरा, गरीबों को मदद नही बल्कि धर्मान्तरण करवाना था।

26 अगस्त 2020

 
मदर टेरेसा का आज जन्मदिन था लेकिन ट्वीटर पर एक टॉप ट्रेंड चल रहा था #TeresaNoSaint इसमें जनता बता रही थी कि मदर टेरेसा कोई संत नही बल्कि मिशनरियों की कठपुतली थी उसने भारत में गरीबों की मदद के बहाने गरीबों का शोषण किया और दान के पैसे से हिंदुस्तानियों का धर्मान्तरण करवाया।
 

 

 
मदर टेरेसा 24 मई 1931 को कलकत्ता आई और यही की होकर रह गई। कोलकाता आने पर धन की उगाही करने के लिए मदर टेरेसा ने अपनी मार्केटिंग आरम्भ करी। उन्होंने कोलकाता को गरीबों का शहर के रूप में चर्चित कर और खुद को उनकी सेवा करने वाली के रूप में चर्चित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करी। वे कुछ ही वर्षों में “दया की मूर्ति”, “मानवता की सेविका”, “बेसहारा और गरीबों की मसीहा”, “लार्जर दैन लाईफ़” वाली छवि से प्रसिद्ध हो गई। बड़े शातिर तरीके से उन्होंने अपनी मार्केटिंग करी कि जिससे यह लगे की गरीबों की वह सबसे बड़ी हमदर्द है। इसका परिणाम यह निकला की विश्व स्तर पर उनकी बढ़िया छवि बन गई जिससे न केवल अकूत धन की उन पर वर्षा हुई बल्कि नोबेल शांति पुरस्कार भी मिला। इसका दूरगामी प्रभाव यह हुआ कि हिन्दू समाज उनके धर्मान्तरण के असली उद्देश्य की अनदेखी कर उन्हें संत मानने लग गया। 31 मई 2010 को BBC मे खबर थी। कुछ हिन्दुओं की मूर्खता देखिये उन्होंने इंग्लैंड के वेम्ब्ली में 14 साल और 16 मिलियन पौंड (लगभग 15 करोड़ रूपए) खर्च करके आलीशान मंदिर का निर्माण किया उसमें हिन्दू देवी देवताओं के अतिरिक्त वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप या बन्दा बैरागी नहीं अपितु मदर टेरेसा की मूर्ति लगा डाली। खबर का लिंक-
 
 
क्रिस्टोफर हिचेन्स (अप्रैल 1949-दिसंबर 2011) ने टेरेसा पर एक किताब लिखी है। ‘द मिशनरी पोजीशन : मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस’। क्रिस्टोफर हिचेन्स अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रिटिश-अमेरिकी लेखक और पत्रकार है। इसमें वे लिखते हैं कि मीडिया के एक विशेष वर्ग द्वारा महिमामंडित टेरेसा के 600 मिशन दुनियाभर में हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन्हें ‘मरने वालों का बसेरा’ कहा जाता है। इन स्थानों पर रोगियों को रखा जाता है, जिनके बारे में चिकित्सकों ने चौंकाने वाले बयान दिए हैं। चिकित्सकों के मुताबिक, जहां रोगियों को रखा जाता है, वहां साफ-सफाई नहीं होती। रोगियों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने और उनके लिए दर्द निवारक दवाएं नहीं होने पर भी उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया। क्रिस्टोफर हिचेंस के अनुसार, जब इस बारे में पूछा गया तो टेरेसा का जवाब था- ”गरीबों, पीडितों द्वारा अपने नसीब को स्वीकार करता देखने और जीसस की तरह कष्ट उठाने में एक तरह का सौंदर्य है। उन लोगों के कष्ट से दुनिया को बहुत कुछ मिलता है।”
 
हालांकि जब टेरेसा खुद बीमार पड़ीं तो अपने ऊपर इन सिद्धांतों को लागू नहीं किया। न ही इन अस्पतालों को अपने इलाज के लिए उपयुक्त समझा न टेरेसा ने अपना इलाज यहां कराया। यह बात दिसंबर 1991 की है। ‘मदर टेरेसा की कमाई बंगाल के किसी भी फर्स्ट क्लास क्लीनिक को खरीद सकती थी। लेकिन क्लीनिक न चलाकर एक संस्था चलाना एक सोचा समझा फैसला था। समस्या कष्ट सहने की नहीं है, लेकिन कष्ट और मौत के नाम पर एक कल्ट चलाने की है। मदर टेरेसा खुद अपने आखिरी दिनों में अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित सबसे महंगे अस्पतालों में से एक स्क्रप्सि क्लीनिक एंड रिसर्च फाउंडेशन में भर्ती हुईं।
 
क्रिस्टोफ़र हिचेन्स ने 1994 में एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई थी, जिसमें मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डाली गई थी। बाद में यह फ़िल्म ब्रिटेन के चैनल-फ़ोर पर प्रदर्शित हुई और इसने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की। बाद में अपने कोलकाता प्रवास के अनुभव पर उन्होंने एक किताब भी लिखी “हैल्स एन्जेल” (नर्क की देवदूत) इसमें उन्होंने कहा है कि “कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है। जिन्हें पोप नियंत्रित करते हैं, चैरिटी चलाना, मिशनरियाँ चलाना, धर्म परिवर्तन आदि इनके मुख्य काम हैं। जाहिर है कि मदर टेरेसा को टेम्पलटन सम्मान, नोबल सम्मान, मानद अमेरिकी नागरिकता जैसे कई सम्मान इसी कारण से मिलें।
 
कॉलेट लिवरमोर टेरेसा के ही मिशन में काम करने वाली एक आस्ट्रेलियाई नन है। इन्होने अपने मोहभंग और यातनाओं पर एक किताब लिखी है- ‘होप एन्ड्योर्स’। इसमें उन्होंने अपने 11 साल के अनुभव के बारे में लिखा है कि कैसे ननों को चिकित्सीय सुविधाओं, मच्छर प्रतिरोधकों और टीकाकरण से वंचित रखा गया ताकि वे ‘जीसस के चमत्कार पर विश्वास करना सीखें’। कॉलेट ने पुस्तक में इस बात का भी उल्लेख किया है कि वे किस तरह एक मरणासन्न रोगी की सहायता करने के कारण संकट में पड़ गई थी। उन्होंने लिखा है कि वहां पर तंत्र उचित या अनुचित के स्थान पर आदेश का पालन करने पर जोर देता है। जब कॉलेट को एलेक्स नामक एक बीमार बालक की सहायता करने से रोका गया तब उन्होंने टेरेसा को अलविदा कह दिया और लोगों से अपील की कि वे अपनी बुद्धि का उपयोग करें।
 
अरूप चटर्जी जो कोलकाता में रहते है अपनी पुस्तक “द फाइनल वर्डिक्ट” में लिखते है कि दान से मिलने वाले पैसे का प्रयोग सेवा कार्य में शायद ही होता होगा। मिशनरी में भर्ती हुए आश्रितों की हालत भी इतने धन मिलने के उपरांत भी उनकी स्थिति कोई बेहतर नहीं थी। टेरेसा दूसरो के लिए दवा से अधिक प्रार्थना में विश्वास रखती थी। जबकि खुद का इलाज कोलकाता के महंगे अस्पताल में कराती थी। मिशनरी की एम्बुलेंस मरीजों से अधिक नन आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य करती थी। यही कारण था की मदर टेरेसा की मृत्यु के समय कोलकाता निवासी उनकी शवयात्रा में न के बराबर शामिल हुए थे।”
 
डॉ.रॉबिन फ़ॉक्स जो “ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल शोध पत्रिका लेंसेट (Lancet) के सम्पादक थे ने 1991 में एक बार मदर के कलकत्ता स्थित चैरिटी अस्पतालों का दौरा किया था। उन्होंने पाया कि बच्चों के लिये साधारण दवाईयाँ तक वहाँ उपलब्ध नहीं थी और न ही “स्टर्लाइज्ड सिरिंज” का उपयोग हो रहा था। जब इस बारे में मदर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ये बच्चे सिर्फ़ मेरी प्रार्थना से ही ठीक हो जायेंगे”।
 
रोमन कैथोलिक में किसी को सन्त घोषित करना हो तो उसकी पहली शर्तें होती है, उपरोक्त व्यक्ति के नाम के साथ कोई चमत्कार घटित होता दिखाया जाये। अगर चमत्कार का ‘प्रमाण’ पेश किया गया तो उपरोक्त व्यक्ति का ‘बीटिफिकेशन’ होता है अर्थात उसे ईसा के प्रिय पात्रों में शुमार किया जाता है, जिसका ऐलान वैटिकन में आयोजित एक बड़े धार्मिक जलसे में लाखों लोगों के बीच किया जाता है तथा दूसरे चरण में उसे सन्त घोषित किया जाता है जिसे ‘कननायजेशन’ कहते है।
 
अभी कुछ साल पहले मदर टेरेसा का बीटिफिकेशन हुआ था, जिसके लिए राईगंज के पास की रहनेवाली किन्हीं मोनिका बेसरा से जुड़े ‘चमत्कार’ का विवरण पेश किया गया था। गौरतलब है कि ‘चमत्कार’ की घटना की प्रामाणिकता को लेकर सिस्टर्स आफ चैरिटी के लोगाें ने लम्बा चौड़ा 450 पेज का विवरण वैटिकन को भेजा था। यह प्रचारित किया गया था कि मोनिका के टयूमर पर जैसे ही मदर टेरेसा के लॉकेट का स्पर्श हुआ, वह फोड़ा छूमन्तर हुआ। दूसरी तरफ खुद मोनिका बेसरा के पति सैकिया मूर्म ने खुद ‘चमत्कार’ की घटना पर यकीन नहीं किया था और मीडियाकर्मियों को बताया था कि किस तरह मोनिका का लम्बा इलाज चला था। दूसरे राईगंज के सिविल अस्पताल के डाक्टरों ने भी बताया था कि किस तरह मोनिका बेसरा का लम्बा इलाज उन्होंने उसके टयूमर ठीक होने के लिए किया। https://www.facebook.com/288736371149169/posts/3667777206578385/
 
ईसाई मिशनरीयों का पक्षपात इसी से समझ में आता है की वह केवल उन्हीं गरीबों की सेवा करना चाहती हैं, जो ईसाई मत को ग्रहण कर ले। भारत में कार्य करने वाली ईसाई संस्थाओं का एक चेहरा अगर सेवा है तो दूसरा असली चेहरा प्रलोभन, लोभ, लालच, भय और दबाव से धर्मान्तरण भी करना हैं। इससे तो यही प्रतीत होता है की जो भी सेवा कार्य मिशनरी द्वारा किया जा रहा है उसका मूल उद्देश्य ईसाईकरण ही है।
 
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