धरती पर सबसे ज्यादा श्रेष्ठ और कल्याणकारी क्या हैं

* मनमुख व्यक्ति का जीवन

* मन पर कुछ कीर्तन-भजन का अंकुश

* या संतों का सान्निध्य

 

     आज समाज का अध:पतन होते देखकर, नैतिकता का ह्रास और सिर्फ आधुनिकता की अंधी दौड़ बढ़ते देखकर जब मन बहुत व्यथित हो उठता है !
    तो *घनघोर अंधेरे* में आशा की सिर्फ एक नन्हीं सी किरण दिखाई देती है और वो है *हमारी आदर्श सनातन परमपराएं…* । _जो समाज को जीने की सही राह दिखती हैं…_ क्योंकि इसमेें त्याग , दया , क्षमा , शील , संयम , सदाचार , चरित्र बल और सबसे बढ़कर *परहित* की प्रधानता है।
     बचपन से ही हमने सुना है कि भगवान का नाम ही सभी भय स्थानों से हमारी रक्षा करने में सक्षम है । भगवन्नाम के स्मरण के सिवा जो कुछ भी हम देखते , सुनते या करते हैं , अंत समय में सब व्यर्थ हो जाता है। केवल भगवान का सुमिरन ही सार्थक होता है।
      उसमें भी सुमिरन कैसा है ? स्वार्थपरक है या नि:स्वार्थ भाव से केवल परमात्म प्रीति के लिए किया गया है ? इसका भी बहुत महत्व है।
     आधुनिकता की चकाचौंध में अंधे बने हुए लोग डिस्को में, फिल्में देखने में, होटलों और पार्टियों में नाचने गाने को ही ख़ुशी समझते हैं।
     अब तो *आधुनिक विज्ञान ने भी मान लिया है कि* इससे *हमारी* जीवनी शक्ति का अत्यंत ह्रास होता है और अनजाने में हम हमारे बच्चों में भी वैसे ही *कुसंस्कारों* का सिंचन कर देते हैं ! और इसी के परिणाम स्वरूप समाज का नैतिक पतन होता है जो हमें आए दिन देखने/सुनने को मिलता है ।
     इससे तो कीर्तन-भजन का आयोजन बहुत उत्तम है, जिसमें कुछ भगवद्चर्चा तो होती है । लेकिन *श्रेष्ठतम* बात ये है कि, कीर्तन तो वही का वही हो ,पर संतो के सान्निध्य में होता है तो वो सुसंस्कार के साथ-साथ मुक्ति दिलाने वाला भी बन जाता है ।
   आइए इसी विषय के कई पहलुओं पर चर्चा करते हैं
पहले हमें ये समझना चाहिए कि…
भजन या कीर्तन किसे कहेंगे ? और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है ?
-:कीर्तन का स्वरूप और महत्त्व:-
     हम सबने सुना है कि भगवान तो भाव के भूखे हैं , इसलिए उनके भजन में ताल, स्वर और वाद्य भले ही उत्कृष्ट न हों , पर भाव और मांग की प्रधानता होती है । मतलब ये कि हम *भगवान से कुछ चाहते हैं ?* या फिर *भगवान को ही चाहते हैं ?
     उदाहरण के लिए एक भजन देखते है…. जिसकी कुछ पंक्तियाँ बड़ी हास्यास्पद लगती हैं। लेकिन शायद यही तो हम सब मांगते हैं ना भगवान से ?
“छोटा सा परिवार हमारा सदा बनाए रखना…
इस बगिया में फूल खिले जो सदा खिलाए रखना…”
तो क्या ये संभव है ?
और क्या ऐसी प्रार्थना या मांग करना व्यर्थ नहीं हुआ ?
     पर ऐसी समझ हमें, तभी मिल सकती है, जब हम स्वामी विवेकानंद जी, संत कबीरदासजी, संत श्रीरमण महर्षिजी,संत श्री आशारामजी बापू या स्वामी दयानंद सरस्वती जी जैसे किन्हीं साधु पुरुष, महापुरुष के पास बैठ कर उनके विचार, उनके अनुभव सुनते हैं उनके द्वारा बताई गई बातों को अपने जीवन में आत्मसात करने की कोशिश करते हैं ।
      बड़े भाग्यशाली होते हैं वो लोग जिन्हें ऐसे महापुरुषों का सान्निध्य मिलता है।
     आमतौर पर देखा जाए तो लोगों का मानना है , कि *बचपन* तो खेलने खाने के लिए और *जवानी* कुछ *हैसियत* बनाने के लिए दी है भगवान ने । ये *पूजा-पाठ* तो *बुजुर्गों* को ही शोभा देता है।
तो ज़रा सोचिए :-
“आएगा जब रे बुलावा हरि का,छोड़ के सबकुछ जाना पड़ेगा।”
      *फिर… अभी नहीं तो कभी नहीं !
“लड़कपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया।
बुढ़ापा देखकर रोया, यही क़िस्सा पुराना है।।”
     ज़रा सोचिए कि शक्तिहीन बुढ़ापे में भक्ति करने का साहस हम कहां से लाएंगे। इसलिए आत्मज्ञानी महापुरुषों ने कहा है कि , ध्रुव , प्रहलाद और ऋषभदेव जैसी , अष्टावक्र मुनि जैसी लौ बचपन से ही बच्चों में जगाओ। तो वे बड़ी ज्योति का रूप ले कर समाज में भी उजाला बांटेंगे।
     इसलिए हमारे दृष्टिकोण से तो *ब्रह्मज्ञानी आत्मारामी संतों का संग व उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलना हमारे लिए सबसे श्रेष्ठतम और अनमोल साधन* है ।
     : रचना मनोज खेमका :
    : वाराणसी , उत्तर प्रदेश :
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